रविवार, १२ सप्टेंबर, २०२१

शहीद जतिंद्र दास

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       🇮🇳 *गाथा बलिदानाची* 🇮🇳
                 ▬ ❚❂❚❂❚ ▬                  संकलन : सुनिल हटवार ब्रम्हपुरी,          
             चंद्रपूर 9403183828                                                      
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             *यतीन्द्रनाथ दास*
                        उर्फ
                *जतीन दास*

    *जन्म : 27 अक्टूबर 1904*
       (कलकत्ता, ब्रितानी भारत)
   *मृत्यु : 13 सितम्बर 1929*
                    (उम्र 24)
          (लाहौर, ब्रिटीश  भारत)

मृत्यु का कारण : अनशन
राष्ट्रीयता : भारतीय
अन्य नाम : जतीन; जतीन्द्र; जतीन्द्र दास, जतीन दास
व्यवसाय : स्वतंत्रता कार्यकर्ता
प्रसिद्धि कारण : कारावास मे 63-दिन की भूख हड़ताल; हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य

*"शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा”*

हर साल स्वतंत्रता दिवस पर ऐसी ही कुछ दिल छू जाने वाली पंक्तियाँ हम बड़े ही उत्साह के साथ अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर शेयर करते हैं। और अगर कोई हमसे स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पूछ ले तो सबसे पहले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का नाम जुबान पर आता है। या फिर ऐसे चंद लोगों का जिन्हें इतिहास में जगह मिली।

बेशक, देश के लिए अपनी जान हँसते-हँसते कुर्बान कर देने वाले इन क्रांतिकारियों की कोई बराबरी नहीं। लेकिन गलत यह है कि हमारे इतिहास ने सिर्फ ऐसे चंद क्रांतिकारियों से रू-ब-रू कराया। न जाने और भी कितने नाम है जिनका जिक्र तक हमें नहीं मिलता।

ऐसा ही एक नाम है जतिंद्रनाथ दास का, जिन्हें उनके साथी क्रांतिकारी ‘जतिन दा’ कहकर पुकारते थें। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की ही तरह जतिंद्र भी बहुत ही कम उम्र में अपने देश के लिए कुर्बान हो गये थे। वे छोटी सी उम्र में ही बंगाल का क्रांतिकारी ग्रुप ‘अनुशीलन समिति’ में शामिल हो गये थे।

कोलकाता के एक साधारण बंगाली परिवार में 27 अक्टूबर 1904 को जन्मे जतिंद्रनाथ दास महज 16 साल की उम्र में ही देश की आजादी के आंदोलन में कूद गए थे। महात्मा गाधी के असहयोग आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। कलकत्ता के विद्यासागर कॉलेज में पढ़ने वाले जतिंद्र को विदेशी कपड़ों की दुकान पर धरना देते हुए गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 6 महीने की सजा हुई।

भारत माता के लिए कुछ करने का जज्बा लिए जतिन्द्रनाथ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी सचिन्द्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आए। जिसके बाद वे क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएश्न’ के अहम सदस्य बन गये।

साल 1925 में अंग्रेजों ने उन्हें ‘दक्षिणेश्वर बम कांड’ और ‘काकोरी कांड’ के सिलसिले में गिरफ़्तार कर लिया। हालांकि सबूत नहीं मिलने के कारण उन पर मुकदमा तो नहीं चल पाया, लेकिन वे नजरबन्द कर लिए गए। जेल में भारतीय कैदियों के साथ हो रहे बुरे व्यवहार के विरोध में उन्होंने भूख हड़ताल की। जब जतींद्रनाथ की हालत बिगड़ने लगी तो अंग्रेज सरकार ने डरकर 21 दिन बाद उन्हें रिहा कर दिया।

उन्होंने सचिंद्रनाथ सान्याल से बम बनाना सिखा और वे बाकी क्रांतिकारियों के लिए बम बनाने लगे। उन्होंने हर कदम पर भगत सिंह का साथ दिया। भगत सिंह ने अन्य साथियों के साथ मिलकर लाहौर असेंबली में बम फेंका, जिसमें ब्रिटिश अधिकारी मारे गये। इसके बाद जब ब्रिटिश पुलिस ने भगत सिंह और उनके साथियों को पकड़ने के लिए गतिविधि तेज कर दी, तब इन क्रांतिकारियों के लिए बम बनाने वाले कारखानों पर भी छापा पड़ा।

भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद लाहौर षडयंत्र केस में जतिंद्र को भी अन्य लोगों के साथ पकड़ लिया गया।

उन दिनों जेल में भारतीय राजनैतिक कैदियों की हालत एकदम खराब थी। उसी तरह के कैदी यूरोप के हों, तो उनको कुछ सुविधाएं मिलती थीं। यहां के लोगों की जिंदगी नरक बनी हुई थी। उनके कपड़े महीनों नहीं धोए जाते थे, तमाम गंदगी में खाना बनता और परोसा जाता था। इससे धीरे-धीरे भारतीय कैदियों में गुस्सा भरता गया।

इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी। जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे।

फिर सब ने जतिंद्र को भी हड़ताल में शामिल होने के लिए कहा, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है, ‘जीत या फिर मौत!’

इस अटल प्रण के साथ उन की क्रांतिकारी भूख हड़ताल शुरू हुई। उनका मानना था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना शायद आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति धीरे-धीरे मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन का मूल उद्देश्य खतरे में पड़ जाता है।

जतिंद्र नाथ के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में वैसे तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर यह हड़ताल तोड़ने के लिए जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिठाई और दूध आदि इन क्रांतिकारियों को देने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामान फेंक देते थे; पर जतिंद्र कमरे में रखे होने पर भी खाने को छूना तो दूर देखते तक न थे।

जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। जतिंद्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।

जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर जतिंद्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प के बीच नही आएगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाना, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।

हड़ताल का 63वां दिन था। बताया जाता है कि उस दिन उनके चेहरे पर एक अलग ही तेज था। उन्होंने सभी साथियों को साथ में बैठकर गीत गाने के लिए कहा। अपने छोटे भाई को पास में बिठाकर खूब लाड़ किया। उनके एक साथी विजय सिन्हा ने उन का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे’ और फिर ‘वन्दे मातरम्’ गाया।

यह गीत पूरा होते ही जतिंद्र ने इस दुनिया से विदा ले ली। वह दिन था 13 सितंबर 1929 और सिर्फ 24 साल की उम्र में भारत माँ का यह सच्चा सपूत अपने देश के लिए कुर्बान हो गया।

हालांकि, अंग्रेजों ने खूब चाहा कि जतिंद्र की मौत का ज्यादा तमाशा न बनें और उन्होंने हर संभव प्रयास किया कि उनका अंतिम-संस्कार आनन-फानन में कर के यह किस्सा खत्म किया जाये। उन्होंने ट्रेन से उनके पार्थिव शरीर को कलकत्ता रवाना किया।

पर देश की एक और वीरांगना थी जिसने जतिंद्रनाथ दास की मौत को जाया ना जाने दिया। ये थीं महान क्रन्तिकारी दुर्गा भाभी, जिन्होंने जेल से बाहर आने के बाद जतिंद्र की शव-यात्रा का नेतृत्व किया। हर एक स्टेशन पर ट्रेन रोकी गयी। यहाँ लोगों ने जुलुस निकाला और इस सच्चे सेनानी के दर्शन किये।

उनकी मौत की खबर सुनकर सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें ‘भारत का युवा दधीची’ कहा, जिसने अंग्रेजों के साम्राज्य के विनाश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

आज़ादी के बाद भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक पोस्टल स्टैम्प जारी की। भारत के इस महान क्रांतिकारी को हमारा शत-शत नमन!
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳

शनिवार, ११ सप्टेंबर, २०२१

आचार्य विनोबा भावे

*🖥️ महाराष्ट्र तंत्रस्नेही शिक्षक समूह 🖥️*
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       🇮🇳 *गाथा बलिदानाची* 🇮🇳
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           *आचार्य विनोबा भावे*
(अहिंसा आणि मानवाधिकाराचे भारतीय पुरस्कर्ता, भूदान चळवळीचे प्रवर्तक)

पुर्ण नाव : विनायक नरहरी भावे
        *जन्म : ११ सप्टेंबर १८९५*
         (गागोदे, पेण , जि. रायगड)
        *मृत्यू : १५ नोव्हेंबर १९८२*                           (लक्ष्मीपूजन -दिवाळी)
        (पवनार, महाराष्ट्र, भारत)
चळवळ : भारतीय स्वातंत्र्यलढा,
भूदान चळवळ
पुरस्कार : भारतरत्न पुरस्कार (१९८३)
धर्म : हिंदू
प्रभाव : महात्मा गांधी
वडील : नरहर शंभूराव भावे
आई : रखुमाबाई नरहर भावे
                विनायक नरहरी भावे (आचार्य विनोबा भावे नावाने प्रसिद्ध)  हे भारतीय स्वातंत्र्यसैनिक व भूदान चळवळीचे प्रणेते होते. महात्मा गांधींनी १९४० मध्ये 'वैयक्तिक सत्याग्रह' पुकारला, त्यावेळीही पहिले सत्याग्रही म्हणून त्यांनी आचार्य विनोबा भावे यांची निवड केली. ब्रिटिश राजविरोधी या आंदोलनाचे पर्यवसान १९४२ मध्ये 'छोडो भारत' आंदोलनात झाले. भावे पुढे सर्वोदयी नेते म्हणून प्रसिद्ध झाले.
💁🏻‍♂️ *सुरुवातीचे जीवन*
(११ सप्टेंबर १८९५ - १५ नोव्हेंबर १९८२). थोर गांधीवादी आचार्य व भूदान चळवळीचे प्रवर्तक. कोकणातील रायगड जिल्ह्यातील पेण तहसिलातील गागोदे या गावी विनोबा तथा विनायक नरहर भावे यांचा जन्‍म झाला. आजोबांचे नाव शंभुराव भावे. शंभुराव भावे यांचे जन्मगाव वाई. त्यांच्या अनेक पिढ्यांचे वास्तव्य वाई येथे होते. वाईच्या ब्राम्हणशाही या मोहल्ल्यात कोटेश्वर मंदिर आहे. हे भावे यांच्या मालकीचे असून तेथे शंभुरावांनी अग्‍निहोत्र स्वीकारून अग्‍निहोत्र शाळा स्थापली होती. आजोबा आणि मातुश्रींपासून धर्मपरायणतेचे संस्कार विनोबांना मिळाले. त्यांचे वडील नरहरी शंभुराव भावे व आई रखुमाबाई. वडील नोकरीच्या निमित्ताने बडोदे येथे गेले. विनोबांचे माध्यमिक आणि उच्च शिक्षण बडोदे येथेच झाले. १९१६ साली महाविद्यालयीन इंटरची परीक्षा देण्यासाठी ते मुंबईस जाण्यास निघाले; परंतु वाटेतच सुरतेस उतरून आईवडिलांना न कळविताच वाराणसी येथे रवाना झाले. त्यांना दोन गोष्टींचे आकर्षण होते. एक हिमालय व दुसरे बंगालचे सशस्त्र क्रांतिकारक, वाराणसी येथे हिंदु विश्वविद्यालयातील एका समारंभात महात्मा गांधीचे भाषण झाले. त्याचा त्यांच्या मनावर खोल परिणाम झाला. हिमालयातील अध्यात्‍म आणि बंगालमधील क्रांती यांच्या दोन्ही प्रेरणा महात्मा गांधीच्या उक्तीत आणि व्यक्तिमत्त्वात त्यांना आढळल्या. त्यांनी महात्मा गांधींशी पत्रव्यवहार केला व गांधींची कोचरब आश्रमात ७ जून १९१६ रोजी भेट घेतली आणि तेथेच त्या सत्याग्रहश्रमात नैष्ठिक ब्रह्मचर्याची प्रतिज्ञा करून जीवनसाधना सुरू केली. ऑक्टोबर १९१६ रोजी महात्मा गांधींची एक वर्षांची रजा घेऊन ते वाई येथे प्राज्ञपाठशाळेत वेदान्ताच्या अध्ययनाकरिता उपस्थित झाले. ब्रह्यविद्येची साधना त्यांचा जीवनोद्देश होता.

*जीवन कार्य*
🇮🇳 *स्वातंत्र्य लढा*
                     महात्मा गांधींसोबत
ते भारतीय स्वातंत्र्य लढ्यामध्ये महात्मा गांधींसोबत होते. स्वातंत्र्य लढ्यातील सहभागाबद्दल सन १९३२ मध्ये त्यांना तुरुंगवास घडला.

🔮 *सामाजिक व धार्मिक कार्य*
            वाई येथील प्राज्ञपाठशाळा मंडळाचे संस्थापक व मुख्याध्यापक स्वामी केवलानंद सरस्वती (पूर्वाश्रमीचे नारायणशास्त्री मराठे) यांच्यापाशी विनोबांनी उपनिषदे, ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, पांतजलयोगसूत्रे इ. विषयांचे अध्ययन केले. माहुली येथील स्वामी कृष्णानंद यांच्या आश्रमातील काही प्रौढ विद्यार्थी-शिवनामे, वि. का. सहस्रबुद्धे इत्यादी मंडळीही त्यांच्याबरोबर सहाध्यायी होती. दिनकरशास्त्री कानडे व महादेवशास्त्री दिवेकर हे प्राज्ञपाठशाळेची व्यवस्थापनाची व अन्य प्रकारची कामे पाहत होते. प्रत्येक सोमवार हा या पाठशाळेचा सुटीचा म्हणजे अनध्ययनाचा दिवस असे. त्या दिवशी पाठशाळेची अंगमेहनतीची कामे शिक्षक-विद्यार्थी उरकत असत आणि प्रज्ञानंदस्वामींच्या समाधिस्थानाच्या सभागृहात विद्यार्थी व शिक्षक यांच्या शास्त्रार्थ चर्चेकरता साप्ताहिक सभा भरत. चर्चेचे विषय सामाजिक, धार्मिक, तात्‍त्‍विक हे असतच; परंतु त्याबरोबर प्रचलित राजकारणाची अनेक बाजूंनी मीमांसाही चालत असे. दिनकरशास्त्री कानडे हे सेनापती बापट, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, योगी अरविंद घोष इत्यादी सशस्त्र क्रांतीकारकांच्या मार्गाने चालणाऱ्या एका गुप्त कटाचे सदस्य होते. सशस्त्र क्रांतीच्या तत्त्वज्ञानाचा ते पुरस्कार करीत. विनोबांच्याप्रमाणेच त्यांचेही वक्‍तृत्व अमोघ होते. अहिंसक क्रांताची वैचारिक भूमिका विनोबा मोठ्या परिणामकारक रीतीने या साप्ताहिक सभांमध्ये मांडीत असत. १९१७ साली हिवाळ्यात वाई येथे प्लेगची साथ उद्‍‌भवली. कृष्णेच्या दक्षिण तीरावर राहुट्या आणि पर्णशाला उभारून त्यांत प्राज्ञपाठशाळेचे विद्यार्थी व शिक्षक जवळजवळ ४ महिने राहिले. वेदान्ताचे व इतर शास्त्रांचे पाठ त्यांतील एका विस्तृत पर्णशालेमध्ये चालत असत. विनोबा पर्णशालेबाहेरच्या कृष्णाकाठच्या आम्रवृक्षाच्या छायेखाली उपनिषदांचे व शांकरभाष्याचे उच्च स्वरात वाचन करीत, हळूहळू सावकाश फेऱ्या मारीत असत. त्यांचे ते प्रसन्न वाचन ऐकून स्वामी केवलनंदांच्या मनावर विनोबाजींच्या व्यक्तिमत्त्वाची खूप खोल छाप पडली, विनोबांनी वेदान्ताविषयामध्ये खूप वेगाने १० महिन्यांत प्रगती केली. आपण कोणकोणत्या ग्रंथांचे व विषयांचे अध्ययन केले याचा सविस्तर वृतान्त त्यांनी महात्मा गांधींना कळवला. गांधीं हे वृत्तान्तपत्र वाचून अत्यंत विस्मित झाले. त्या पत्राच्या उत्तरात म. गांधींनी अखेर म्हटले की, " ए गोरख, तूने मच्छिंदरको भी जीत लिया है !".

                    विनोबा वाईहून परत अहमदाबादला फेब्रुवारी १९१८ मध्ये परतले. १९१८ साली एन्फ्ल्यूएंझाची साथ देशभर पसरली. लक्षावधी लोक त्या साथीला बळी पडले. त्यात विनोबांचे वडील, मातुश्री आणि सगळ्यात धाकटा भाऊ दत्तात्रय हे आजारी पडले. ही गोष्ट महात्मा गांधीना कळल्यावर त्यांनी विनोबांना मातुश्रींच्या शुश्रूषेकरता बडोद्यास जाण्याचा आग्रह धरला. विनोबा तयार नव्हते. गांधीनी त्यांचे मन वळवले. आई आणि धाकटा भाऊ या रोगाला बळी पडले. वडील बरे झाले. विनोबा सर्वांत ज्येष्ठ पुत्र, म्हणून आईचा अंत्यविधी त्यांनीच करणे प्राप्त होते. पुरोहिताकडून अंत्यविधीचा संस्कार करवून घेणे विनोबांना मान्य नव्हते. म्हणून ते स्मशानात गेले नाहीत. वडिलांनी पद्धतीप्रमाणे अंत्यविधी उरकून घेतला.

१९२१ साली गांधींचे भक्त शेठ जमनालाल बजाज यांनी साबरमतीच्या सत्याग्रह आश्रमाची शाखा वर्ध्याला काढली. त्या शाखेचे संचालक म्हणून महात्मा गांधीनी विनोबांची रवानगी वर्ध्यास केली. ८ एप्रिल १९२१ रोजी विनोबा वर्ध्याला पोहोचले. आतापर्यंत संबंध आयुष्य -१९५१ ते ७३ पर्यंतची भूदानयात्रा सोडल्यास या वर्ध्याच्या आश्रमातच राहून विनोबांनी तपश्चर्या करीत जीवन घालविले. हा वर्ध्याचा आश्रम क्रमाने मगनवाडी, बजाजवाडी, महिलाश्रम, सेवाग्राम व पवनार ह्या ठिकाणी फिरत राहिला. ही सर्व ठिकाणे वर्ध्याच्या ८ किमी. परिसरातच आहेत. दिवसातले सात-आठ तास सूत कातणे, विणणे आणि शेतकाम यांमध्ये त्यांनी घालविले. रोज नेमाने शरीरश्रम प्रत्येक माणसाने करावे, असा त्यांचा सिद्धान्त होता. 'शरीरश्रमनिष्ठा' हे त्यांच्या जीवन-तत्त्वज्ञानाप्रमाणे महत्त्वाचे व्रत होते. शरीरश्रमांबरोबरच त्यांनी मानसिक, आधात्मिक साधनाही प्रखरतेने केली. १९३० व ३२ च्या सविनय कायदेभंगाच्या चळवळीत त्यांनी कारागृहवास भोगला. १९४० साली महात्मा गांधीनी स्वराज्याकरिता वैयक्तिक सत्याग्रहाचे आंदोलन आरंभले. त्यात पहिला सत्याग्रही म्हणून विनोबांची निवड केली. जवाहरलाल नेहरू हे दुसरे निवडले. आध्यात्मिक साधनेला वाहून घेतलला शत्रुमित्रसमभावी तपस्वी मनुष्य सत्याग्रहाला अत्यंत आवश्यक, म्हणून त्यांनी विनोबांची निवड केली. कारण सत्याग्रह हे शत्रूच्या हृदयपरिवर्तनाचे नैतिक शुद्ध साधन होत, अशी महत्मा गांधीची मूलभूत राजकीय भूमिका होती. उच्चतम आध्यात्मिक जीवनसाधनेस वाहिलेला शत्रुमित्रभाव विसरलेला माणूसच असे हृदय-परिवर्तन करू शकतो, अशी गांधींची धारणा होती. २० ऑक्टोबर १९४० रोजी स्वसंपादित हरिजन साप्ताहिकात गांधींनी आपल्या या शिष्याची ओळख करून दिली आहे.

१९३२ सालच्या सविनय कायदेभंगाच्या सामुदायिक आंदोलनात विनोबांनी भाग घेतला. त्यांनी धुळे कारागृहामध्ये शिक्षा भोगली. सुप्रसिद्ध गीताप्रवचने या कारागृहात त्यांनी दिली. शंभरापेक्षा अधिक सत्याग्रही कैदी आणि इतर गुन्ह्यांसाठी शिक्षा झालेले कैदी या प्रवचनांच्या रविवारच्या सभेत उपस्थित असत. त्यांमध्ये शेठ जमनालाल वजाज, गुलजारीलाल नंदा, अण्णासाहेब दास्ताने, साने गुरूजी इ. मंडळी उपस्थित असत.

या प्रवचनांचा मुख्य दृष्टिकोन 'गीता ही साक्षात भगवंताची उक्ति होय', असा होता. त्या उक्तीला पूर्ण प्रमाण मानूनच, त्यासंबंधी कसलीही साधकबाधक चर्चा न करताच त्यांनी ती १८ प्रवचने दिली. लो. टिळकांच्या गीतारहस्याचा मुख्य दृष्टिकोन त्यांनी मानला नाही. आद्य शंकराचार्याचाच मुख्य दृष्टिकोन मान्य केला, असे दिसून येते. मोहनिरास म्हणजे अज्ञाननाश हे गीतेचे मुख्य उद्दिष्ट त्यांनी मानले. अर्जुनाला युद्धास प्रवृत्त करणे हा उद्देश गृहीत धरून केलेला कर्मयोगाचाच उपदेश गीतेत आहे, हा टिळकांचा दृष्टिकोन विनोबांनी स्वीकारली नाही. विनोबांनी निष्काम कर्मयोग मान्य केला; परंतु युद्धोपदेशाकडे कानाडोळा केला. महात्मा गांधींच्या मताने गीतेमध्ये युद्धाचा आदेश हा भौतिक सशस्त्र युद्धाचा आदेश नाही. मानवी हृदयात चाललेल्या सद्‍भावना व असद्‍भावना यांच्या संघर्षाला काव्यमय बनवण्साठी योजलेले मानवी सशस्त्र युद्धाचे कविकल्पित रूपक गीतेने योजिलेले आहे; महाभारत हा इतिहासग्रंथ नाही म्हणून त्यातील योद्धे आणि युद्धात गुंतलेले शत्रुमित्रपक्ष हे केवळ कविकल्पित होत; असे महत्मा गांधी अनासक्ति योग या पुस्तकात प्रतिपादितात. विनोबा आणि गांधी हे दोघेही निरपवाद अहिंसा तत्त्वाचे पुरस्कर्ते. भगवद्‍गीता वाचत असताना विनोबा भगवद्‍गीता हा युद्धोपदेश नाही असे सांगतात आणि महत्मा. गांधी ते आध्यात्मिक भावनांचे युद्ध होय, असे सांगतात. हा युद्धाचा मुद्दा सोडला, तर सगळ्या एकेश्वरवादी धार्मिकांना प्रेरणा देणारे अत्युच्च जीवनविषयक व विश्वविषयक तत्त्वज्ञान अतिशय सुंदर रीतीने गीतेमध्ये सांगितले असल्यामुळे गीता हा हिंदूंनाच नव्हे तर जगातील अध्यात्मवाद्यांना मोहून टाकणारा ग्रंथ आहे, यात शंका नाही. म्हणूनच, गीता जरी सशस्त्र हिंसात्मक युद्धाचा पुरस्कार करत असली, तरी गांधींना आणि विनोबांना या गीतेने कायम मोहून टाकले आहे. म्हणून गांधींनी आणि विनोबांनी जन्मभर सकाळ-संध्याकाळ चालविलेल्या प्रार्थनासंगीतात भगवद्‍गीता ही कायमची अंतर्भूत केली होती.

वैयक्तिक सत्याग्रहानंतर ७ मार्च १९५१ पर्यंत पवनार येथील परंधाम आश्रमातच विनोबांनी शारीरिक आणि मानसिक तपश्चर्येत जीवन व्यतीत केले. १९३६ पासून म. गांधी साबरमतीचा आश्रम सोडून सेवाग्रामला म्हणजे पवनारजवळच येऊन राहिले. त्यामुळे गांधी आणि विनोबा यांचा चिरकाल संवाद चालू राहिला. गांधीच्या देहान्तानंतर सर्वसेवासंघ व सर्वोदय समाज या संस्थांची स्थापना झाली. मार्च १९४८ मध्ये विनोबा दिल्ली येथे जवाहरलाल नेहरू यांच्या विनंतीवरून गेले. भारत-पाक फाळणी झाल्यानंतर परागंदा झालेले लक्षावधी शरणार्थी (सर्व बाजूंनी जीवन उद्‍ध्वस्त झालेले) दिल्ली, पंजाब, राजस्थान यांमध्ये आले. त्यांना धीर देण्याकरता विनोबांना पंडितजींनी बोलावून घेतले. या दौऱ्यात सर्वधर्मसमभावाचा आदेश देऊन प्रेम आणि सद्‍भावना निर्माण करण्याचा प्रयत्‍न विनोबांनी केला.

दिनांक १५ नोव्हेंबर १९८२ रोजी सकाळी ९.४० वाजता पवनार येथे परंधाम आश्रमात सतत सात दिवस प्रायोपवेशन करून भूदाननेते आचार्य विनोबा भावे यांनी वयाच्या ८७ व्या वर्षी प्राणत्याग केला. त्यांच्या निधनाची वार्ता त्यांनी प्रायोपवेशन सुरू केल्यानंतर केव्हाही अपेक्षित होती. ५ नोव्हेंबर रोजी विनोबांना ताप आला, त्याबरोबरच हृदयविकारही उद्‍भवला आणि प्रकृती चिंताजनक झाली. उपचार त्वरित सुरू झाले. वैद्यकीय महाविद्यालयाच्या रूग्‍णालयात उपचार करण्याकरता नेण्याचा विचार तज्‍ज्ञ डॉक्‍टरांनी विनोबांना सांगितला; परंतु त्यांनी परंधाम आश्रम सोडण्यास नकार दिला व तेथेच उपचार सुरू झाले. मुंबई येथील जसलोक हॉस्पिटलचे तज्‍ज्ञ डॉ. मेहता मुंबईहून आले. हळूहळू प्रकृती सुधारेल अशी आशा उत्पन्न झाली. अ‍ॅलोपथीचे उपचारही विनोबांनी स्वीकारले, परंतु ८ नोव्हेंबर रोजी रात्री अन्नपाणी आणि औषधे या तिन्ही गोष्टी घेण्यास त्यांनी नकार दिला. आचार्यांचे बंधू शिवाजीराव भावे, मित्र दादा धर्माधिकारी इत्यादी मंडळींनी व आश्रमस्थ भक्तजनांनी आचार्यांना परोपरीने काकुळतीस येऊन, अन्नपाणी व औषधे घेण्याची विनंती केली. ती त्यांनी नाकारली. इंदिरा गांधी विनोबाजींना १० नोव्हेंबर रोजी भेटल्या. अन्नपाणी, औषधे घेण्याची विनंती त्यांनीही केली. प्रायोपवेशनाचा संकल्प करण्याचे कारण आचार्यांनी श्री. त्र्यं. गो. देशमुख व इतर भक्तांना स्पष्ट करून सांगितले. ते म्हणाले- " आता देह आत्म्याला साथ देत नाही. रखडत जगण्यात अर्थ नाही. जराजर्जर शरीर टाकणेच ठीक !"

🏛️ *विनोबांची समाधी, परंधाम आश्रम, पवनार, वर्धा*
                 आचार्यांच्या निधनाची वार्ता भारतभर व जगभर सर्व प्रचारमाध्यमांतून विद्युतवेगाने पसरली. या निधनाला कोणी महानिर्वाण म्‍हणाले, कोणी युगपुरुषाची समाधी म्‍हणाले. महात्‍मा गांधींच्या आध्यात्मिक परंपरेचे ते एक श्रेष्ठ वारस होते. त्यांचे हे प्रायोपवेशनाचे तंत्र हिंदू धर्म, बौद्ध व विशेषतः जैन धर्म या तिन्ही धर्मांना प्राचीन कालापासून मान्य असलेले तंत्र आहे. जैन धर्मात या तंत्रास 'सल्लेखना' अशी संस्कृत संज्ञा आणि 'संथारा' ही प्राकृत संज्ञा आहे. हिंदु धर्मात यास 'प्रायोपवेशन' म्हणतात. प्राय म्हणजे तप. तपाचा एक मुख्य अर्थ ' अनशन ' असा आहे. देहाचे दुर्घर व्याधी बरे होऊ शकत नाहीत, असे निश्चित झाल्यावर रूग्णाला जलप्रवेशाने, अग्‍निप्रवेशाने, भृगुपतनाने (उंच कड्यावरून उडी मारून), अनशनाने (अन्नपाणी वर्ज्य करून) किंवा अन्य कोणत्याही इष्ट मार्गाने देहविसर्जन करण्याची हिंदुधर्मशास्त्राने अनुमती दिली आहे. ज्ञानदेवादी संतांनी योगमार्गाने देहत्याग केला आहे. हा योगमार्ग गुरूगम्यच आहे. त्याचे वर्णन गीतेच्या आठव्या अध्यायात केले आहे. तात्पर्य, प्रायोपवेशन किंवा योगशास्त्रातील देहत्यागाची युक्ती हिंदुधर्मशास्त्राने मान्य केली आहे. विनोबांनी प्रायोपवेशनाच्या द्वारे देहत्याग केला. अनेक जैन साधू आणि साध्वी स्त्रिया आजही प्रतिवर्षी अशा प्रकारे देहत्याग करीत असतात आणि त्याची वार्ता वृत्तपत्रांतही केव्हा केव्हा येते. स्वातंत्र्यवीर सावरकर, धर्मानंद कोसंबी यांनी अशाच प्रकारे देहत्याग केला आहे.

⛲ *विनोबांचे विचार*
१) वर्तमानाला बंधन असावे म्हणजे वृत्ति मोकळी राहते. २) सत्य, संयम, सेवा ही पारमार्थिक जीवनाची त्रिसूत्री आहे . [१] ३) आध्यात्मिक व्यवहार म्हणजे स्वाभाविक व्यवहार म्हणजे शुद्ध व्यवहार . ४) हिंदुधर्माचे स्वरूप : आचार-सहिष्णुता, विचारस्वातंत्र्य, नीति- धर्माविषयी दृढता. ५) प्राप्तांची सेवा, संतांची सेवा, द्वेष कर्त्याची सेवा ही सर्वोत्तम सेवा. ६) असत्यात शक्ति नाही. आपल्या अस्तित्वासाठी हि त्याला सत्याचा आश्रय घेणे भाग आहे. ७) सत्य , संयम, सेवा ही पारमार्थिक जीवनाची त्रिसूत्री आहे. ८) ईश्वर, गुरु ,आत्मा, धर्म, आणि संत ही पाच पूजास्थाने . ९) इतिहास म्हणजे अनदिकालापासून आत्तापर्यंत चे सर्व जीवन. पुराण म्हणजे अनदिकालापासून आत्तापर्यंत टिकलेला अनुभवाचा अमर अंश.

🗽 *विनोबांचे स्मारक*
          विनोबांसह नरहर कुरुंदकर, वसंतदादा पटील, बालगंधर्व, जी.डी. बापू लाड, नागनाथ‍अण्णा नायकवाडी, बाळासाहेब देसाई (सातारा), भाई सावंत, बाळासाहेब सावंत (रत्‍नागिरी), चिंतामणराव देशमुख, संताजी घोरपडे, मारोतराव कन्नमवार, आदी व्यक्तीची स्मारके उभारण्याचे महाराष्ट्रातील काँग्रेस सरकारने ठरवले होते, पण यांतील एकही स्मारक पूर्णत्वास गेले नाही.

📙✍️ *पुस्तके*
अष्टादशी (सार्थ)
ईशावास्यवृत्ति
उपनिषदांचा अभ्यास
गीताई
गीताई-चिंतनिका
गीता प्रवचने
गुरुबोध सार (सार्थ)
जीवनदृष्टी
भागवत धर्म-सार
मधुकर
मनुशासनम्‌ (निवडक मनुस्मृती - मराठी)
लोकनीती
विचार पोथी
साम्यसूत्र वृत्ति
साम्यसूत्रे
स्थितप्रज्ञ-दर्शन
📚 *चरित्रग्रंथ*
आमचे विनोबा (राम शेवाळकर आणि इतर)
गांधी, विनोबा आणि जयप्रकाश (मिलिंद बोकील)
दर्शन विनोबांचे (राम शेवाळकर)
ब्रह्मर्षी विनोबा (बालसाहित्य, लेखक - विठ्ठल लांजेवार)
महर्षी विनोवा (राम शेवाळकर)
महाराष्‍ट्राचे शिल्‍पकार विनोबा भावे (लेखक : किसन चोपडे.) (महाराष्ट्र सरकारचे प्रकाशन)
विनोबांचे धर्मसंकीर्तन (राम शेवाळकर आणि इतर))
विनोबासारस्वत (राम शेवाळकर आणि इतर)
साम्ययोगी विनोबा (राम शेवाळकर)
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳

🙏🌹 *विनम्र अभिवादन* 🌷🙏
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            स्त्रोत ~ WikipediA                                                                                                                                                                                                                                                        ➖➖➖➖➖➖➖➖➖                                          
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गुरुवार, ९ सप्टेंबर, २०२१

Present Perfect Tense - पूर्ण वर्तमान काळ

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Test no - 11

Present Perfect Tense - पूर्ण वर्तमान काळ

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https://youtu.be/DPixaHG0Az4

🎯 Online Test
 
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https://forms.gle/1etgF1TaHagLhkxG7

निर्मिती - श्री अविनाश पाटील 
बापूसाहेब डी. डी. विसपूते माध्यमिक व उच्च माध्यमिक विद्यालय वलवाड़ी ता. जि. धुळे
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बालशहीद शिरीषकुमार मेहता

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               *बालशहीद*
         *शिरीषकुमार मेहता*

     *जन्म : 28 डिसेंबर 1926*
       (नंदुरबार , महाराष्ट्र , भारत)

    *वीरमरण : 9 सप्टेंबर 1942* 
                 *(वय 15)* 
      (नंदुरबार , महाराष्ट्र , भारत)

राष्ट्रीयत्व : भारतीय

साठी प्रसिद्ध : भारतीय स्वातंत्र्य  
                     चळवळ

           पाताळगंगा नदीच्या काठी चार डोंगराच्या कुशीत वसलेल्या नंदनगरी अर्थात नंदुरबार शहराची पूर्वापार ओळख ही व्यापाऱ्यांची वसाहत म्हणूनच. या गावात १९२६ मध्ये एका व्यापाऱ्याच्या घरात शिरीषकुमारांचा जन्म झाला. त्याच्यासह पाच संवगड्यांनी स्वातंत्र्य लढ्यात प्राणाची आहुती दिली. त्यामुळे या गावाचे नाव देशाच्या कानाकोपऱ्यात पोचले. नंदुरबार हे आता कुठे अंदाजे एक लाख लोकसंख्येचे छोटेसे गाव आहे. परस्परांना ओळखणारे आणि स्नेह जाणणारे लोक आहेत. घराघरांतून चालणारा व्यापार आणि देवाणघेवाण हे महत्त्व जाणून पूर्वापार अनेक ज्येष्ठ प्रवाशांनी या गावाला भेटी दिल्या आहेत. प्रसिद्ध प्रवासी ट्‌वेनियरने १६६० ला श्रीमंत आणि समृद्धनगरी असे नंदुरबारचे वर्णन केले आहे, तर नंद नावाच्या गवळी राजाने हे गाव वसविल्याची आख्यायिका आहे. ऐन-ए-अकबरी (इ.स. १५९०) मध्ये नंदुरबारचा उल्लेख किल्ला असलेले आणि सुबक घरांनी सजलेले शहर असा आहे.

         नंदुरबारमध्ये बाळा शंकर इनामदार नावाचे एक व्यापारी होते. त्यांचा तेलाचा व्यापार होता. त्यांना मुलगा नसल्याने ते काहीसे दु:खी होते. त्यांनी पुत्रप्राप्तीसाठी दुसरा विवाह केला. त्यांना कन्याप्राप्ती झाली. ही कन्या त्यांनी पुष्पेंद्र मेहता यांना सोपवली. १९२४ ला पुष्पेंद्र व सविता यांचा विवाह झाला. २८ डिसेंबर १९२६ ला या दांपत्याच्या पोटी, मेहता घराण्यात शिरीषकुमारचा जन्म झाला. या काळात देशातील अन्य गावे व शहरांप्रमाणेच नंदुरबारचेही वातावरण स्वातंत्र्यलढ्याच्या प्रेरणेने भारलेले होते. स्वातंत्र्य प्राप्तीसाठी सामान्यांनी काय करायचे तर हाती तिरंगा झेंडा घेऊन प्रभातफेरी, मशाल मोर्चे काढायचे. देशप्रेमांनी ओतप्रोत घोषणा द्यायच्या! नंदुरबारमधील अशा कामात मेहता परिवाराचा सहभाग होता. शिरीष वयपरत्वे शाळेत जाऊ लागला होता आणि त्याच्यावर महात्मा गांधी व नेताजी सुभाषचंद्र बोस यांचा मोठा प्रभाव होता. त्या काळात "वंदे मातरम्‌' आणि "भारत माता की जय' असा जयघोष करणाऱ्या कोणालाही पोलिस अटक करू शकत होते.

🇮🇳 *नहीं नमशे, नहीं नमशे !*
        महात्मा गांधींनी ९ ऑगस्ट १९४२ ला इंग्रजांना "चले जाव'चा आदेश दिला. त्यानंतर गावोगावी प्रभात फेऱ्या, ब्रिटिशांना इशारे दिले जाऊ लागले. बरोबर महिनाभरानंतर, ९ सप्टेंबर १९४२ ला नंदुरबारमध्ये निघालेल्या प्रभात फेरीत आठवीत शिकत असलेला शिरीष सहभागी झाला होता. गुजराथी मातृभाषा असलेल्या शिरीषने प्रभात फेरीत घोषणा सुरू केल्या, "नहीं नमशे, नहीं नमशे', "निशाण भूमी भारतनु'. भारत मातेचा जयघोष करीत ही फेरी गावातून फिरत होती. मध्यवर्ती ठिकाणी ती फेरी पोलिसांनी अडवली. शिरीषकुमारच्या हातात झेंडा होता. पोलिसांनी ही मिरवणूक विसर्जित करण्याचे आवाहन केले. या बालकांनी ते आवाहन झुगारले आणि "भारत माता की जय', "वंदे मातरम्‌'चा जयघोष सुरूच ठेवला. अखेर पोलिसांनी गोळीबार सुरू केला. एका पोलिस अधिकाऱ्याने मिरवणुकीत सहभागी मुलींच्या दिशेने बंदूक रोखली. तेव्हा त्या अधिकाऱ्याला एका चुणचुणीत मुलाने सुनावले, *"गोळी मारायची तर मला मार!'*. ती वीरश्री संचारलेला मुलगा होता, शिरीषकुमार मेहता! संतापलेल्या पोलिस अधिकाऱ्याच्या बंदुकीतून सुटलेल्या, एक, दोन, तीन गोळ्या शिरीषच्या छातीत बसल्या आणि तो जागीच कोसळला. त्याच्यासोबत पोलिसांच्या गोळीबारात लालदास शहा, धनसुखलाल वाणी, शशिधर केतकर, घनश्‍यामदास शहा हे अन्य चौघेही शहीद झाले.
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳
🙏🌹 *विनम्र अभिवादन* 🌷🙏
                 
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     संदर्भ~ hindujagruti.org                                                                                                                                                                                                                                                       ➖➖➖➖➖➖➖➖➖                                          
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सोमवार, ६ सप्टेंबर, २०२१

शिक्षक दिन डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जन्मदिन विशेष

🖥️ महाराष्ट्र तंत्रस्नेही शिक्षक समूह 🖥️
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       🇮🇳 गाथा बलिदानाची 🇮🇳
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संकलन - श्री अविनाश पाटील                  धुळे - 8796759702                                   
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               भारतरत्न        
    डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
     जन्म : ५ सप्टेंबर १८८८
(तिरुत्तनी, तमिळनाडू तील एक छोटे गाव, दक्षिण भारत)
    मृत्यू : १७ एप्रिल १९७५                                  २ रे भारतीय राष्ट्रपती
कार्यकाळ : १३ मे १९६२ – 
                 १३ मे १९६७
मागील : राजेंद्रप्रसाद
पुढील : झाकीर हुसेन
       भारतीय उपराष्ट्रपती
कार्यकाळ : १९५२ – १९६२
   
राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय 
                       काँग्रेस
पत्नी : सिवाकामुअम्मा
अपत्ये : पाच मुली व एक पुत्र, 
             सर्वपल्ली गोपाल
व्यवसाय : राजनीतिज्ञ, तत्त्वज्ञ, 
                प्राध्यापक
धर्म : वेदान्त (हिंदू)

सर्वेपल्ली राधाकृष्णन हे भारताचे दुसरे राष्ट्रपती व नामांकित शिक्षणतज्‍ज्ञ होते. डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन  हे भारताचे भारताचे पहिले उपराष्ट्रपती आणि दुसरे राष्ट्रपती होते. त्यांच्या कार्यकाळ  त्यांचा जन्म दक्षिण भारतात तिरुत्तनी या ठिकाणी झाला. हे गाव चेन्नई (मद्रास) शहरापासून ईशान्येला ६४ किमी अंतरावर आहे. राधाकृष्णन यांचा ५ सप्टेंबर हा जन्मदिवस भारतात शिक्षक-दिन म्हणून साजरा केला जातो.

पाश्चात्त्य जगताला भारतीय चिद्‌वादाचा तात्त्विक परिचय करून देणारा भारतावरच्या ब्रिटिश सत्ताकाळातला महत्त्वाचा विचारवंत म्हणून राधाकृष्णन यांना ओळखले जाते. भारतीय तत्त्वज्ञानाचे भाष्यकार म्हणून ते ऑक्सफर्डमध्ये नावाजले गेले. त्यांच्या कार्याचे महत्त्व जाणून ऑक्सफर्ड विद्यापीठाने त्यांच्या नावाने 'राधाकृष्णन मेमोरियल बिक्वेस्ट' हा पुरस्कार ठेवला आहे.

राधाकृष्णन यांच्या जीवनात तीन प्रमुख प्रश्न होते. पहिला प्रश्न असा की, नीतिमान पण चिकित्सक, विज्ञानोन्मुख पण अध्यात्मप्रवण असा नवा माणूस कसा निर्माण करता येईल? या दृष्टीने शिक्षणाचा काही उपयोग होऊ शकेल का? दुसरा प्रश्न असा होता की, प्राचीन भारतीय तत्त्वचिंतन सर्व जगाला आधुनिक भाषाशैलीत, आधुनिक पद्धतीने कसे समजावून सांगता येईल? भारतीय तत्त्वचिंतनाचे वैभव जगाला नेमकेपणाने कसे सांगावे? कसे पटवून द्यावे? तिसरा प्रश्न असा होता की; मानव जातीचे भवितव्य घडवण्यासाठी सांस्कृतिक संचिताचा उपयोग किती?' कुणाशीही ते याच तीन प्रश्नांच्या अनुरोधाने बोलत, असे नरहर कुरुंदकर लिहितात.

🎖 पुरस्कार

१९५४ : 'भारतरत्‍न' पुरस्काराने सन्मानित.

भारताचे माजी राष्ट्रपती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् यांचा 5 सप्टेंबर रोजी जन्मदिन ‘शिक्षक दिन’ म्हणून साजरा करण्यात येतो. ‘शिक्षक’ हा भावी पिढीचा शिल्पकार असून त्यांच्याकडूनच आपल्याला ज्ञान व जगाकडे पाहण्याची सकारात्मक दृष्टी मिळत असते. आपल्या गुरू, शिक्षकांविषयी कृतज्ञता व्यक्त करण्याचा हा दिवस…. 

डॉ. राधाकृष्ण यांचे शिक्षकांप्रती असलेले प्रेम व आदर पाहून भारत सरकारने त्यांचा जन्मदिन हा ‘शिक्षक दिन’ म्हणून साजरा करण्‍याचा संकल्प केला. ती परंपरा अजूनही सुरू आहे व भविष्‍यातही सुरूच राहिल. 1962 मध्ये डॉ. राधाकृष्णन् यांनी राष्ट्रपती पदाची शपथ घेतली तेव्हा त्यांचा जन्मदिवस हा शिक्षकांचा गौरव दिन म्हणून साजरा करण्याची इच्छा प्रकट केली होती. देशातील शिक्षकांचा गौरव हाच आपला गौरव असल्याचे त्यांनी सांगितले होते.

भारताचे दुसरे राष्ट्रपती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन याच्या स्मृतीप्रत्यर्थ त्यांचा जन्मदिन संपूर्ण भारतभर शिक्षक दिन म्हणून साजरा करतात. कारण डॉ. राधाकृष्णन यांनी 1909 ते 1948 वर्षं पर्यंत म्हणजे 40 वर्षे शै‍क्षणिक क्षेत्रात शिक्षकाचा कार्यभार सांभाळला .

त्यांचा जन्म 5 सप्टेंबर 1888 साली आंध्र राज्यातील चितुर जिल्ह्यातील तिरूत्तनी या गावी झाला. प्राथमिक शिक्षण त्यांच्या गावी झाले व पुढील शिक्षण तिरुपती या गावी झाले. त्यांचे शिक्षण लुथरम मिशन हायस्कूल मध्ये झाले. नंतर उच्च माध्यमिक शिक्षण मद्रास येथील ख्रिश्चन कॉलेजात. तत्त्वज्ञान विषय घेऊन ते प्रथम क्रमांकाने पास झाले व एम्.ए. साठी नितीशास्त्र विषय घेतला.

मद्रास येथे प्रेसिडेन्सी कॉलेजमध्ये तर्कशास्त्राचे प्राध्यापक म्हणून 1917 पर्यंत कार्य केले. 1939 मध्ये आंध्र विद्यालयाने त्यांना डी. लिट. ही पदवी दिली.

1931साली इंग्लॅडने डॉ. राधाकृष्णन यांना सर ही मानाची पदवी बहाल केली. त्यांच्या वाढत्या गुणांमुळे, प्रगतीमुळे 1946ते 1949 या काळात भारतीय राज्य घटना समितीचे सभापती म्हणून निवड झाली.

1952साली भारताचे पहिली निवडणूक होऊन उपराष्ट्रपती म्हणून निवड झाली. त्याच वेळी ते दिल्ली विद्यापीठाचे कुलपती होते. त्याचप्रमाणे 1939 ते 48 बनारस हिंदू विश्वविद्यालयाचे कुलपती होते.

1957च्या दुसर्‍या सार्वत्रिक निवडणुकीत ते पुन्हा उपराष्ट्रपती झाले. उत्कृष्ट कार्य कर्तृत्त्वामुळे त्यांना 1958 साली भारतरत्न हा पुरस्कार देण्यात आला.

13 मे 1962 साली डॉ. राधाकृष्णन यांची राष्ट्रपती म्हणून निवड करण्यात आली. 1967 साली निवृत्त झाले. त्यानंतर आंध्रराज्यातील तिरूपती या गावी 24 एप्रिल 1975 रोजी वृद्धापकाळाने त्यांचे निधन झाले.

*‘शिक्षक’ भावी पिढीचा शिल्पकार…*

शिक्षक हा समाज परिवर्तन करणारा घटक आहे. भविष्यातले विचारवंत, कलाकार, लेखक, तत्त्वज्ञ, पुढारी, डॉक्टर, प्राध्यापक, इंजिनीयर, शास्त्रज्ञ तयार करण्याचे सामर्थ्य शिक्षकांमध्ये असते. ज्या प्रमाणे मातीच्या गोळ्याला कुंभार आकार देऊन त्यापासून एखादी प्रतिकृती तयार करत असतो, अगदी त्याचप्रमाणे शिक्षक बालकांच्या कोर्‍या मनावर योग्य संस्कार करून त्यातून भविष्यातील जबाबदार नागरिक घडवित असतात. आपल्या आई-वडीलांनंतर शिक्षक हे आपले अप्रत्यक्षरित्या पालकच असतात.

शिक्षक हे आपल्याला केवळ पुस्तकी ज्ञान शिकवित नाहीत तर आपण त्यांच्याकडून जगण्याची कला आत्मसात करत असतो.

आपल्या व्यक्तीमत्त्वावर त्यांच्याकडून संस्कार, संस्कृती, परंपरा, चालीरिती व आदर असे पैलू पाडले जात असतात. त्यामुळे विद्यार्थ्यांनी‍ आपल्या गुरूंचा नेहमी आदरपूर्वक सन्मान केला पाहिजे. त्यांच्याविषयी शिक्षक दिनी कृतज्ञता व्यक्त करून त्याचे ऋण फेडण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे.

शिक्षक दिन अर्थात चिंतनाचा दिन
समाज व शिक्षक यांचे नाते अतूट आहे. तसेच ते अमूल्यही आहे. भारतीय तत्त्वज्ञानातील परंपरेमध्ये समाजऋण फेडण्यासाठीचाही उल्लेख आढळतो. शिक्षक म्हणजे समाज घडविणारा सर्जनशील घटक. राष्ट्राची ध्येय-धोरणे बळकट करण्यासाठी व देशाला अधिक बलशाली बनवण्यासाठी जी राष्ट्रीय शैक्षणिक धोरणे आखली जातात त्याची रूजवणं करणारा, ती मूल्ये वृध्दिंगत होण्यासाठी संस्कार करणारा महत्त्वाचा घटक म्हणजे शिक्षक. राष्ट्रउभारणीत शिक्षण व शिक्षकांना महत्त्वाचे स्थान आहे. अशावेळी एखाद्या राष्ट्राच्या जडणघडणीत शिक्षक हा महत्त्वाचा मानला जातो. समाजातील अनेक पिढय़ा त्यांच्या हाताखालून जात असतात. या पिढय़ांना माणूस म्हणून घडवताना राष्ट्रीय चारित्र्यही घडणे अभिप्रेत असते. महात्मा गांधीजींना शिक्षणांची व्याख्या करताना हेच अभिप्रेत होते व ते कालातीतही आहे.

शिक्षकांनी, शिक्षक हा पेशा न मानता ते व्रत समजावे व घेतला वसा टाकू नये, ऊतू नये, मातू तर अजिबात नये. कालौघात शिक्षणक्षेत्रातील आवाहने व शिक्षकांविषयीच्या संकल्पना बदलत आहेत. गुरू, गुरुजी, मास्तर, बाई, सर, ताई आणि आता मॅडम अशी बिरूदे शिक्षकांसाठी पुढे आली आहेत. शिक्षक व विद्यार्थी यातील अंतर कमी झाले आहे. शिक्षकांविषयीची आदरुक्त भीती आता अभावानेच आढळते. गुरुंविषयीचा अभिमान, आदर असणारी ऋषीतुल्य व्यक्तिमत्त्वेही तशीच कमीच होत आहेत. शिक्षकांची जागा तंत्रज्ञानाने घेतली आहे. गुरुची कामं आता यंत्र करत आहे. शाळा, महाविद्यालय ही संकल्पना भविष्यात लयालाही जाईल. ऑनलाइन शिक्षण व ऑनलाइन पदवीही मिळेल. या सगळ्या गदारोळात माणसाच्या सामाजिकीकरण प्रक्रिया मात्र होणार नाही. सहवेदना, सहकार्य, सहानुभूती, त्याग, सोसणे या मानवी भावभावनांचे विकसीकरण कदाचित होणार नाही. सवंगडय़ा सोबत, एका विशिष्टवेळी, विशिष्ट इमारतीत प्रत्यक्ष प्रसंग घडत असताना, प्रत्यक्ष जीवनानुभवातून आपण जे अनुकरणाने, अवलोकनाने, अनुभवातून शिकतो त्याचे काय? हा प्रश्न बाकी असेल. यादृष्टीने विचार करता, मानवाने यंत्रे निर्माण केली. विकसित केली. हीच यंत्रे माणसाची जागा घेत आहेत. पण शिक्षण क्षेत्रात ई-लर्निगची साधने हा शिक्षकांसाठीचा पर्याय होऊ शकत नाही. संस्कार, प्रेम, शिस्त, सृजनांचे रूजवण करण्याचे काम यंत्रे करू शकत नाहीत. हेच खरे.
आज एकविसाव्या शतकाकडे वाटचाल करताना पारंपरिक शिक्षण व आधुनिक शिक्षण असे दोन प्रवाह दिसतात. जीवन कौशल्यावर आधारित किमान कौशल्ये प्राप्त करून देणारे शिक्षण हे भविष्यात उपोगी पडणारे आहे. कुशल मनुष्यबळ हीच आपली आपल्या राष्ट्राची खरी संपत्ती असणार आहे. अगदी आधुनिक पद्धतीच्या शेतीपासून ते अवकाश शास्त्रापर्यंतच तंत्रज्ञानाचा शिक्षणात अंतर्भाव करून राष्ट्राला घडवणारी, राष्ट्राला स्वतंत्र वेगळी ओळख प्राप्त करून देणारी पिढी निर्माण करण्याचे मोठे आव्हान मात्र आपल्या पुढे आहे. शिक्षणाने प्रगती होते, समाज विकसित होतो, देश प्रगत होतो हे खरे; पण आपण मिळवलेले ज्ञान, कौशल्ये हे आपल्या ‘स्व’ सुखापुरते मर्यादित न ठेवता. समाजाभिमुख व्हावे आपण कार्य करतो. समाजासाठी लढतो, उभे राहतो, समाजाला योगदानाच्या रूपात काही देऊ शकतो तेव्हाच हे शक्य आहे व हीच मानसिकता विद्यार्थ्यांमध्ये निर्माण करण्याचे अवघड काम मात्र शिक्षकांना करायचे आहे. धर्म, प्रांत, जात, देश या मर्यादा ओलांडून गेल्याशिवाय ग्लोबलाझेशनच्या खर्‍या अर्थापर्यंत आपण पोहोचू शकणार नाही. म्हणून सर्व थरातील शिक्षणाला व शिक्षकांना आज महत्त्व आहे. माझ्यामधले ‘दि बेस्ट’ देण्याची तळमळ असणारे शिक्षकच हाडाचे शिक्षक ठरतात. समाजभिमुखी पिढी घडवताना विद्यार्थ्यांमध्ये ग्रासलेल्या प्लसची जाणीव, सामर्थ्याची ओळख करून देण्याचे काम होणे आवश्यक आहे. तेव्हाच आपल्याला अभिप्रेत असलेला शिक्षणातून सर्वागिण विकास घडणार आहे. ‘शिक्षक दिन’ म्हणूनच सगळ्यांसाठी चिंतनाचा दिन ठरावा.
मी देशासाठी काय करू शकतो. देशाला काय देऊ शकतो, माझ्या जन्माची सार्थकता कशात आहे, ते इप्सित साध्य करण्याच्या दृष्टीने एक शिक्षक म्हणून आपण कार्यरत असावे. आज काळ बदलला आहे. शिक्षण क्षेत्रातील आव्हाने वाढली आहेत. शिक्षणतज्ज्ञांइतकेच या शिक्षण प्रक्रियेत पालकांनाही महत्त्व आले आहे. समाजाची गरज, विद्यार्थी घडवणे, पालकांची अपेक्षा, आपल्या व्यवसायाची पवित्रता जपणे, प्रतिमा जपणे या सगळ्याचा मेळ घालताना आपले ज्ञानही अद्यावत ठेवणे गरजेचे आहे. या सगळ्याचे संतुलन साधत ह्या व्रताची अवघड वाटचाल करावायची आहे. शिक्षक दिनानिमित्त सर्व गुरुजनांना हार्दिक शुभेच्छा...!

यानिमित्तानं जाणून घेऊया त्यांचे अनमोल आणि प्रेरणादायी विचार...
 
1. भविष्यात येणाऱ्या आव्हानांना सामोरं जाण्यासाठी विद्यार्थ्यांना खऱ्या अर्थानं घडवतो, तो खरा शिक्षक.

2.  मानवतेच्या मूलभूत गोष्टी लक्षात ठेवाव्यात, जेणेकरुन चांगली व्यवस्था आणि स्वातंत्र्य दोन्ही अबाधित राहील.

3. पुस्तकांच्या वाचनानं आपल्याला एकांतात विचार करण्याची सवय आणि खरे सुख लाभते.

7. कवी धर्मामध्ये कोणत्याही निश्चित स्वरुपातील सिद्धांतासाठी कोणतीही जागा नसते.

8. मानव दानव बनणं, हा त्याचा पराभव... मानव महामानव बनणं, हा त्याचा चमत्कार... आणि मनुष्य मानव होणे, हा त्याचा विजय...

9.  कोणतंही स्वातंत्र्य तोपर्यत खरे नसते, जोपर्यंत त्या विचाराचं स्वातंत्र्य प्राप्त होत नाही. सत्याच्या शोधात असताना कोणत्याही धार्मिक श्रद्धा किंवा राजकीय सिद्धांतांमध्ये बाधा आणू नये. 

10. धर्माविना एखादी व्यक्ती लगाम नसलेल्या घोड्याप्रमाणे असतो.
          🇮🇳 जयहिंद 🇮🇳

🙏 डाॕ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन यांच्या पावन स्मृतीस विनम्र अभिवादन🙏

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बुधवार, १ सप्टेंबर, २०२१

Present Continuous Tense

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Simple Present Tense

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बैलपोळा विशेष

               बैलपोळा   सर्व शेतकरी कष्टकरी बांधवांना खुप खुप शुभेच्छा.        श्रावण अमावास्येला पिठोरी अमावस्या म्हणतात. परंप...